Volume 14 | Issue 5
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भारत में धर्म कभी राजनीति से पूरी तरह अलग नहीं रहा, ना ही वह पूरी तरह निजी जीवन तक सीमित था लेकिन जहां तक धर्म संबंधी सार्वजनिक संवादों का सवाल है हमें उसकी दो भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियां अर्थात सुधार और पुनरुत्थान के बीच अंतर करना होगा जैसा कि चार्ल्स हाइमसैथ ने तर्क दिया है राष्ट्रवाद और सुधारवाद परस्पर विरोधी विचार लगते हैं और इसके कारण हर भारतीय विशेषता में गर्व की भावना पर आधारित समाज में सुधारवादी आंदोलनों के विरोध के तौर पर धार्मिक पुनरुत्थानवादी आंदोलनों का जन्म हुआ। इन पुनरुत्थानवादियों का मानना था कि समाज में व्याप्त कुरुतियों का आधार उनके प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में निहित नहीं है बल्कि यह सामाजिक बुराइयाँ और रूढ़िवादिता समय के साथ उनके सामाजिक धार्मिक जीवन में इस प्रकार समा गईं हैं कि अब उनको उनके धर्म से जोड़कर ही देखा जाने लगा, इन्ही पंथों तथा संप्रदायों में इन कुरुतियों कों दूर करने के लिए खड़े हुए आंदोलनों कों ही अक्सर पुनरुत्थानवादी आंदोलन कहा जाता है आधुनिक भारत में पुनरुत्थानवादी आंदोलन का उदय 19वीं सदी में हुआ। यह आंदोलन भारतीय समाज में सामाजिक और धार्मिक सुधार लाने के लिए शुरू किया गया था। इस आंदोलन के प्रमुख उद्देश्यों में से एक था समाज में व्याप्त कुरीतियों और अन्याय को दूर करना। इसके अलावा, इस आंदोलन ने महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई लड़ी, जैसे कि विधवा पुनर्विवाह और महिला शिक्षा को बढ़ावा देना।