IJFANS International Journal of Food and Nutritional Sciences

ISSN PRINT 2319 1775 Online 2320-7876

'सीताराम, नमस्कार!' उपन्यास में औद्योगीकरण की समस्या

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पंकज कुमार

Abstract

स्वातंत्र्योत्तर मानसिकता और सामाजिक संदर्भों को औद्योगीकरण के विभिन्न तत्वों के माध्यम से हिंदी साहित्य में प्रमुखता से चित्रित किया गया है। आमतौर पर कल-कारखानों की स्थापना आर्थिक विकास के उद्देश्य से की जाती है। इससे बेरोजगारी और गरीबी की समस्या का समाधान निश्चित तौर पर होता है, किन्तु आजादी के बाद की पूंजीवादी मानसिकता ने उद्योगों की स्थापना के प्रतिफल के रूप में वर्ग संघर्ष को पैदा किया है। सामंती सोच और अमानुषिक प्रवृत्ति के कारण गरीबों की जमीन हड़पकर उस पर उद्योगों की स्थापना करना आजकल आम बात है। इसी तथ्य को मार्क्सवादी एवं प्रगतवादी साहित्यकार मधुकर सिंह ने अपने उपन्यास ‘सीताराम, नमस्कार!’ के जरिये उठाने की कोशिश की है। ‘बनवारी सिंह एम.एल.ए.' जैसे शोषक और ‘सीताराम पांडे’ जैसे अवसरवादी और कुचरित प्रवृति वाले लोग किस तरह ‘बुलाकी चमार’, ‘शंकर’ और 'चनर ठाकुर’ जैसे ग्रामीणों की जमीन हथियाकर कारखाना का निर्माण करते हैं, इसी विषय वस्तु को मधुकर सिंह ने ‘सीताराम, नमस्कार!’ के माध्यम से यथार्थपरक अभिव्यक्ति प्रदान की है। कारखाना निर्माण होने के बाद की विभिन्‍न घटनाओं का भी इस उपन्यास में वर्णन है, जो स्पष्ट रूप से शोषक और शोषित के अंतर्संबंधों को उजागर करता है। वैसे भी इतिहास इस बात का गवाह है कि गरीबों की झोपड़ी को उजारकर ही अमीरों ने कारखाना रूपी विशाल महल का निर्माण किया है। इस संबंध में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की यह पंक्तितयाँ ध्यान देने योग्य है कि-

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